मक्खन रूपी पुण्य कर्म क्या है

किसी शहर में भ्रमितमति नामक एक व्यक्ति रहता था। वह कुछ काम नहीं करता था और अपनी मन-मर्जी से इधर से उधर भ्रमण करता रहता था।

एक बार ठण्ड के दिनों में वह घूमते-घूमते ग्वालों की बस्ती में पहुँच जाता है। थोड़ी देर तक घूमने के बाद उसे भूँख लगती है, तो उसने एक झोपडी में जाकर खाने को माँगा. माँगने पर उसे खाने में रोटी-सब्जी के साथ थोड़ी छाछ भी मिली। छाछ के साथ कुछ मक्खन के कण भी आये. तब उसने ख़ुशी-ख़ुशी भर पेट खाना खाया.

भ्रमितगति को वहां का वातावरण और लोगो का सरल व्यवहार बहुत अच्छा लगा. अतः उसने कुछ दिन वहीँ रहने का फैसला किया और वह लोगों के छोटे-मोटे काम कर रोज ही मांग कर खाने लगा. साथ ही उसने छाछ के साथ आये मक्खन के कणों को इकठ्ठा कर एक हंडिया में रख लिया.
इस तरह कुछ ही दिनों में उसके पास एक हंडिया भर घी जमा हो गया। तब वह उस हंडिया को ऊपर सींकचे पर रखकर उसके नीचे खाट लगाकर खुश होता हुआ कल्पना करने लगा कि अब कुछ ही दिनों में मैं यह घी बेच दूँगा.फिर जो पैसा आयेगा उससे मैं व्यापार करूंगा और बहुत सी धन-राशि कमाऊंगा और फिर मैं शादी करूँगा। मेरी पत्नी मेरा खाना बनायेगी और रोज रात को मेरी पाँव दबाकर सेवा करेगी,
अगर वह अच्छी तरह काम नहीं करेगी, तो मैं उसे लात मारूंगा।

ऐसा कहते ही वो सचमुच लात उठा कर मारता है; जिससे ऊपर टंगी हुई हंडिया टूट जाती है और उसमे रखा हुआ घी नीचे जल रही अंगीठी पर गिर जाता है, जिसमें वो स्वयं भी अत्यन्त दुखी होता हुआ जलकर मरण को प्राप्त होता है।

भ्रमितमति की दुर्दशा देखकर आपको लगा होगा कि वह तो बड़ा मूर्ख है, जो अपनी ही मृत्यु का कारण बना.

क्या उसे इस तरह का अभिमान करना चाहिये था?

लेकिन विचार तो करो कि उसने तो अपनी बेवकूफी से मात्र एक भव गँवाया है किन्तु आप तो अनादि से इसी तरह थोड़ा पुण्य कमाकर उच्च कुल पाकर, फिर मिथ्या अभिमान में डूबकर अपने अनन्त भवों का नाश कर रहे हो। अतः बड़ा नासमझ कौन; आप या भ्रमितमति?

आप इस संसार में रहते हुए राग-द्वेष रूपी छाछ को पी कर उसके साथ आये हुए मक्खन के कणों के समान पुण्य को इकठ्ठा कर रहे हो. किन्तु अनादिकाल से आज तक यह हो रहा है कि मक्खन रूपी थोड़ा सा पुण्य इकठ्ठा होने पर आप स्वयं ही अभिमानी और मतवाले बनकर, फिर अहंकार में चूर होकर उसे संभाल नहीं पाते हो। तब यह पुण्य ही आपके सर्वनाश का कारण बन जाता है। ऐसा पुण्य अगर जमा भी हो, तो भी स्वयं के चैतन्यदेव को भूलने के कारण आत्मा का अहित ही करने वाला है और परम्परा से निगोद ही का कारण है।

अतः उठो और इस पुण्य-पाप के प्रपंच से दूर हटकर अपनी ओर देखो, बस आपका इस जन्म का एकमात्र कर्तव्य यही है।

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